Stories Of Premchand

10: प्रेमचंद की कहानी "होली का उपहार" Premchand Story "Holi Ka Uphar"

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Synopsis

सन्ध्या हो गयी थी। अमीनाबाद में आकर्षण का उदय हो गया था। सूर्य की प्रतिभा विद्युत-प्रकाश के बुलबुलों में अपनी स्मृति छोड़ गयी थी। अमरकान्त दबे पाँव हाशिम की दूकान के सामने पहुँचा। स्वयंसेवकों का धरना भी था और तमाशाइयों की भीड़ भी। उसने दो-तीन बार अन्दर जाने के लिए कलेजा मज़बूत किया, पर फुटपाथ तक जाते-जाते हिम्मत ने जवाब दे दिया। मगर साड़ी लेना ज़रूरी था। वह उसकी आँखों में खुब गयी थी। वह उसके लिए पागल हो रहा था। आखिर उसने पिछवाड़े के द्वार से जाने का निश्चय किया। जाकर देखा, अभी तक वहाँ कोई वालण्टियर न था। जल्दी से एक सपाटे में भीतर चला गया और बीस-पचीस मिनट में उसी नमूने की एक साड़ी लेकर फिर उसी द्वार पर आया; पर इतनी ही देर में परिस्थिति बदल चुकी थी। तीन स्वयंसेवक आ पहुँचे थे। अमरकान्त एक मिनट तक द्वार पर दुविधे में खड़ा रहा। फिर तीर की तरह निकल भागा और अन्धाधुन्ध भागता चला गया। दुर्भाग्य की बात! एक बुढिय़ा लाठी टेकती हुई चली आ रही थी। अमरकान्त उससे टकरा गया। बुढिय़ा गिर पड़ी और लगी गालियाँ देने-आँखों में चर्बी छा गयी है क्या? देखकर नहीं चलते? यह जवानी ढै जाएगी एक दिन। अमरकान्त के पाँव आगे न जा सके। बुढिय़ा