Stories Of Premchand

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Stories of Premchand narrated by various artists

Episodes

  • 20: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी खंडहर की लिपि, Khandahar Ki Lipi - Story Written By Jaishankar Prasad

    31/01/2019 Duration: 04min

    जब बसन्त की पहली लहर अपना पीला रंग सीमा के खेतों पर चढ़ा लायी, काली कोयल ने उसे बरजना आरम्भ किया और भौंरे गुनगुना कर काना-फूँसी करने लगे, उसी समय एक समाधि के पास लगे हुए गुलाब ने मुँह खोलने का उपक्रम किया। किन्तु किसी युवक के चञ्चल हाथ ने उसका हौसला भी तोड़ दिया। दक्षिण पवन ने उससे कुछ झटक लेना चाहा, बिचारे की पंखुडिय़ाँ झड़ गयीं। युवक ने इधर-उधर देखा। एक उदासी और अभिलाषामयी शून्यता ने उसकी प्रत्याशी दृष्टि को कुछ उत्तर न दिया। बसन्त-पवन का एक भारी झोंका ‘हा-हा’ करता उसकी हँसी उड़ाता चला गया। सटी हुई टेकरी की टूटी-फूटी सीढ़ी पर युवक चढऩे लगा। पचास सीढिय़ाँ चढऩे के बाद वह बगल की बहुत पुरानी दालान में विश्राम लेने के लिए ठहर गया। ऊपर जो जीर्ण मन्दिर था, उसका ध्वंसावशेष देखने को वह बार-बार जाता था। उस भग्न स्तूप से युवक को आमन्त्रित करती हुई ‘आओ आओ’ की अपरिस्फुट पुकार बुलाया करती। जाने कब के अतीत ने उसे स्मरण कर रक्खा है। मण्डप के भग्न कोण में एक पत्थर के ऊपर न जाने कौन-सी लिपि थी, जो किसी कोरदार पत्थर में लिखी गयी थी। वह नागरी तो कदापि नहीं थी। युवक ने आज फिर उसी ओर देखते-देखते उसे पढऩा चाहा। बहुत देर तक घूमता

  • 21: प्रेमचंद की कहानी "राजहठ" Premchand Story "Rajhath"

    30/01/2019 Duration: 19min

    दशहरे के दिन थे, अचलगढ़ में उत्सव की तैयारियॉँ हो रही थीं। दरबारे आम में राज्य के मंत्रियों के स्थान पर अप्सराऍं शोभायमान थीं। धर्मशालों और सरायों में घोड़े हिनहिना रहे थे। रियासत के नौकर, क्या छोटे, क्या बड़े, रसद पहुँचाने के बहाने से दरबाजे आम में जमे रहते थे। किसी तरह हटाये न हटते थे। दरबारे खास में पंडित और पुजारी और महन्त लोग आसन जमाए पाठ करते हुए नजर आते थे। वहॉँ किसी राज्य के कर्मचारी की शकल न दिखायी देती थी। घी और पूजा की सामग्री न होने के कारण सुबह की पूजा शाम को होती थी। रसद न मिलने की वजह से पंडित लोग हवन के घी और मेवों के भोग के अग्निकुंड में डालते थे। दरबारे आम में अंग्रेजी प्रबन्ध था और दरबारे खास में राज्य का।  राजा देवमल बड़े हौसलेमन्द रईस थे। इस वार्षिक आनन्दोत्सव में वह जी खोलकर रुपया खर्च करते। जिन दिनों अकाल पड़ा, राज्य के आधे आदमी भूखों तड़पकर मर गए। बुखार, हैजा और प्लेग में हजारों आदमी हर साल मृत्यु का ग्रास बन जाते थे। राजय निर्धन था इसलिए न वहॉँ पाठशालाऍं थीं, न चिकित्सालय, न सड़कें। बरसात में रनिवास दलदल हो जाता और अँधेरी रातों में सरेशाम से घरों के दरवाजे बन्द हो जाते। अँधेरी सड़कों

  • 19: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी करुणा की विजय, Karuna Ki Vijay - Story Written By Jaishankar Prasad

    29/01/2019 Duration: 04min

    सन्ध्या की दीनता गोधूली के साथ दरिद्र मोहन की रिक्त थाली में धूल भर रही है। नगरोपकण्ठ में एक कुएँ के समीप बैठा हुआ अपनी छोटी बहन को वह समझा रहा है। फटे हुए कुरते की कोर से उसके अश्रु पोंछने में वह सफल नहीं हो रहा था, क्योंकि कपड़े के सूत से अश्रु विशेष थे। थोड़ा-सा चना, जो उसके पात्र में बेचने का बचा था, उसी को रामकली माँगती थी। तीन वर्ष की रामकली को तेरह वर्ष का मोहन सँभालने में असमर्थ था। ढाई पैसे का वह बेच चुका है। अभी दो-तीन पैसे का चना जो जल और मिर्चे में उबाला हुआ था, और बचा है। मोहन चाहता था कि चार पैसे उसके रोकड़ में और बचे रहें, डेढ़-दो पैसे का कुछ लेकर अपना और रामकली का पेट भर लेगा। चार पैसे से सबेरे चने उबाल कर फिर अपनी दूकान लगा लेगा। किन्तु विधाता को यह नहीं स्वीकार था। जब से उसके माता-पिता मरे, साल भर से वह इसी तरह अपना जीवन निर्वाह करता था। किसी सम्बन्धी या सज्जन की दृष्टि उसकी ओर न पड़ी। मोहन अभिमानी था। वह धुन का भी पक्का था। किन्तु आज वह विचलित हुआ। रामकली की कौन कहे, वह भी भूख की ज्वाला सहन न कर सका। अपने अदृष्ट के सामने हार मानकर रामकली को उसने खिलाया। बचा हुआ जो था, उसने मोहन के पेट की ग

  • 20: प्रेमचंद की कहानी "प्रेम सूत्र" Premchand Story "Prem Sootra"

    28/01/2019 Duration: 31min

    संसार में कुछ ऐसे मनुष्य भी होते हैं जिन्हें दूसरों के मुख से अपनी स्त्री की सौंदर्य-प्रशंसा सुनकर उतना ही आनन्द होता है जितनी अपनी कीर्ति की चर्चा सुनकर। पश्चिमी सभ्यता के प्रसार के साथ ऐसे प्राणियों की संख्या बढ़ती जा रही है। पशुपतिनाथ वर्मा इन्हीं लोगों में थे। जब लोग उनकी परम सुन्दरी स्त्री की तारीफ करते हुए कहते — ओहो! कितनी अनुपम रूप-राशि है, कितना अलौकिक सौन्दर्य है, तब वर्माजी मारे खुशी और गर्व के फूल उठते थे। संध्या का समय था। मोटर तैयार खड़ी थी। वर्माजी सैर करने जा रहे थे, किन्तु प्रभा जाने को उत्सुक नहीं मालूम होती थी। वह एक कुर्सी पर बैठी हुई कोई उपन्यास पढ़ रही थी। वर्मा जी ने कहा — तुम तो अभी तक बैठी पढ़ रही हो। ‘मेरा तो इस समय जाने को जी नहीं चाहता।’ ‘नहीं प्रिये, इस समय तुम्हारा न चलना सितम हो जाएगा। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी इस मधुर छवि को घर से बाहर भी तो लोग देखें।’ ‘जी नहीं, मुझे यह लालसा नहीं है। मेरे रूप की शोभा केवल तुम्हारे लिए है और तुम्हीं को दिखाना चाहती हूँ।’ ‘नहीं, मैं इतना स्वार्थान्ध नहीं हूँ। जब तुम सैर करने निकलो, मैं लोगों से यह सुनना चाहता हूँ कि कितनी मनोहर छवि है! पश

  • 18: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी उस पार का योगी, Us Paar Ka Yogi - Story Written By Jaishankar Prasad

    27/01/2019 Duration: 05min

    सामने सन्ध्या-धूसरति जल की एक चादर बिछी है। उसके बाद बालू की बेला है, उसमें अठखेलियाँ करके लहरों ने सीढ़ी बना दी है। कौतुक यह है कि उस पर भी हरी-हरी दूब जम गयी है। उस बालू की सीढ़ी की ऊपरी तह पर जाने कब से एक शिला पड़ी है। कई वर्षाओं ने उसे अपने पेट में पचाना चाहा, पर वह कठोर शिला गल न सकी, फिर भी निकल ही आती थी। नन्दलाल उसे अपने शैशव से ही देखता था। छोटी-सी नदी, जो उसके गाँव से सटकर बहती थी, उसी के किनारे वह अपनी सितारी लेकर पश्चिम की धूसर आभा में नित्य जाकर बैठ जाता। जिस रात को चाँदनी निकल आती, उसमें देर तक और अँधेरी रात के प्रदोष में जब तक अन्धकार नहीं हो जाता था, बैठकर सितारी बजाता अपनी टपरियों में चला जाता था। नन्दलाल अँधेरे में डरता न था। किन्तु चन्द्रिका में देर तक किसी अस्पष्ट छाया को देख सकता था। इसलिए, आज भी उसी शिला पर वह मूर्ति बैठी है। गैरिक वसन की आभा सान्ध्य-सूर्य से रञ्जित नभ से होड़ कर रही है। दो-चार लटें इधर-उधर मांसल अंश पर वन के साथ खेल रही हैं। नदी के किनारे प्राय: पवन का बसेरा रहता है, इसी से यह सुविधा है। जब से शैशव-सहचरी नलिनी से नन्दलाल का वियोग हुआ है, वह अपनी सितारी से ही मन बहलाता

  • 19: प्रेमचंद की कहानी "तिरसूल" Premchand Story "Tirsool"

    26/01/2019 Duration: 31min

    अंधेरी रात है, मूसलाधार पानी बरस रहा है। खिड़कियों पर पानीके थप्पड़ लग रहे हैं। कमरे की रोशनी खिड़की से बाहर जाती है तो पानी की बड़ी-बड़ी बूंदें तीरों की तरह नोकदार, लम्बी, मोटी, गिरती हुई नजर आ जाती हैं। इस वक्त अगर घर में आग भी लग जाय तो शायद मैं बाहर निकलने की हिम्मत न करूं। लेकिन एक दिन जब ऐसी ही अंधेरी भयानक रात के वक्त मैं मैदान में बन्दूक लिये पहरा दे रहा था। उसे आज तीस साल गुजर गये। उन दिनों मैं फौज में नौकर था। आह! वह फौजी जिन्दगी कितने मजे से गुजरती थी। मेरी जिन्दगी की सबसे मीठी, सबसे सुहानी यादगारें उसी जमाने से जुड़ी हुई हैं। आज मुझे इस अंधेरी कोठरी में अखबारों के लिए लेख लिखते देखकर कौन समझेगा कि इस नीमजान, झुकी हुई कमरवाले खस्ताहाल आदमी में भी कभी हौसला और हिम्मत और जोश का दरिया लहरे मारता था। क्या-क्या दोस्त थे जिनके चेहरों पर हमेशा मुसकराहट नाचती रहती थी। शेरदिल रामसिंह और मीठे गलेवाले देवीदास की याद क्या कभी दिल से मिट सकती है? वह अदन, वह बसरा, वह मिस्त्र; बस आज मेरे लिए सपने हैं। यथार्थ है तो यह तंग कमरा और अखबार का दफ्तर। हां, ऐसी ही अंधेरी डरावनी सुनसान रात थी। मैं बारक के सामने बरसाती पह

  • 17: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी पत्थर की पुकार, Patthar Ki Pukaar - Story Written By Jaishankar Prasad

    25/01/2019 Duration: 04min

    नवल और विमल दोनों बात करते हुए टहल रहे थे। विमल ने कहा- ‘‘साहित्य-सेवा भी एक व्यसन है।’’ ‘‘नहीं मित्र! यह तो विश्व भर की एक मौन सेवा-समिति का सदस्य होना है।’’ ‘‘अच्छा तो फिर बताओ, तुमको क्या भला लगता है? कैसा साहित्य रुचता है?’’ ‘‘अतीत और करुणा का जो अंश साहित्य में हो, वह मेरे हृदय को आकर्षित करता है।’’ नवल की गम्भीर हँसी कुछ तरल हो गयी। उन्होंने कहा-‘‘इससे विशेष और हम भारतीयों के पास धरा क्या है! स्तुत्य अतीत की घोषणा और वर्तमान की करुणा, इसी का गान हमें आता है। बस, यह भी एक भाँग-गाँजे की तरह नशा है।’’ विमल का हृदय स्तब्ध हो गया। चिर प्रसन्न-वदन मित्र को अपनी भावना पर इतना कठोर आघात करते हुए कभी भी उसने नहीं देखा था। वह कुछ विरक्त हो गया। मित्र ने कहा-‘‘कहाँ चलोगे?’’ उसने कहा-‘‘चलो, मैं थोड़ा घूम कर गंगा-तट पर मिलूँगा।’’ नवल भी एक ओर चला गया। चिन्ता में मग्न विमल एक ओर चला। नगर के एक सूने मुहल्ले की ओर जा निकला। एक टूटी चारपाई अपने फूटे झिलँगे में लिपटी पड़ी है। उसी के बगल में दीन कुटी फूस से ढँकी हुई, अपना दरिद्र मुख भिक्षा के लिए खोले हुए बैठी है। दो-एक ढाँकी और हथौड़े, पानी की प्याली, कूची, दो काले

  • 18: प्रेमचंद की कहानी "बोहनी" Premchand Story "Bohni"

    24/01/2019 Duration: 12min

    उस दिन जब मेरे मकान के सामने सड़क की दूसरी तरफ एक पान की दुकान खुली तो मैं बाग-बाग हो उठा। इधर एक फर्लांग तक पान की कोई दुकान न थी और मुझे सड़क के मोड़ तक कई चक्कर करने पड़ते थे। कभी वहां कई-कई मिनट तक दुकान के सामने खड़ा रहना पड़ता था। चौराहा है, गाहकों की हरदम भीड़ रहती है। यह इन्तजार मुझको बहुत बुरा लगता थां पान की लत मुझे कब पड़ी, और कैसे पड़ी, यह तो अब याद नहीं आता लेकिन अगर कोई बना-बनाकर गिलौरियां देता जाय तो शायद मैं कभी इन्कार न करूं। आमदनी का बड़ा हिस्सा नहीं तो छोटा हिस्सा जरूर पान की भेंट चढ़ जाता है। कई बार इरादा किया कि पानदान खरीद लूं लेकिन पानदान खरीदना कोई खला जी का घर नहीं और फिर मेरे लिए तो हाथी खरीदने से किसी तरह कम नहीं है। और मान लो जान पर खेलकर एक बार खरीद लूं तो पानदान कोई परी की थैली तो नहीं कि इधर इच्छा हुई और गिलोरियां निकल पड़ीं। बाजार से पान लाना, दिन में पांच बार फेरना, पानी से तर करना, सड़े हुए टुकड़ों को तराश्कर अलग करना क्या कोई आसान काम है! मैंने बड़े घरों की औरतों को हमेशा पानदान की देखभाल और प्रबन्ध में ही व्यस्त पाया है। इतना सरदर्द उठाने की क्षमता होती तो आज मैं भी आदमी हो

  • 16: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी सहयोग, Sahyog - Story Written By Jaishankar Prasad

    23/01/2019 Duration: 07min

    मनोरमा, एक भूल से सचेत होकर जब तक उसे सुधारने में लगती है, तब तक उसकी दूसरी भूल उसे अपनी मनुष्यता पर ही सन्देह दिलाने लगती है। प्रतिदिन प्रतिक्षण भूल की अविच्छिन्न शृंखला मानव-जीवन को जकड़े हुए है, यह उसने कभी हृदयंगम नहीं किया। भ्रम को उसने शत्रु के रूप में देखा। वह उससे प्रति-पद शंकित और संदिग्ध रहने लगी! उसकी स्वाभाविक सरलता, जो बनावटी भ्रम उत्पन्न कर दिया करती थी, और उसके अस्तित्व में सुन्दरता पालिश कर दिया करती थी, अब उससे बिछुड़ने लगी। वह एक बनावटी रूप और आवभगत को अपना आभरण समझने लगी। मोहन, एक हृदय-हीन युवक उसे दिल्ली से ब्याह लाया था। उसकी स्वाभाविकता पर अपने आतंक से क्रूर शासन करके उसे आत्मचिन्ताशून्य पति-गत-प्राणा बनाने की उत्कट अभिलाषा से हृदय-हीन कल से चलती-फिरती हुई पुतली बना डाला और वह इसी में अपनी विजय और पौरुष की पराकाष्ठा समझने लगा था। धीरे-धीरे अब मनोरमा में अपना निज का कुछ नहीं रहा। वह उसे एक प्रकार से भूल-सी गयी थी। दिल्ली के समीप का यमुना-तट का वह गाँव, जिसमें वह पली थी, बढ़ी थी, अब उसे कुछ विस्मृत-सा हो चला था। वह ब्याह करने के बाद द्विरागमन के अवसर पर जब से अपनी ससुराल आयी थी, वह एक अद

  • 17: प्रेमचंद की कहानी "वफ़ा का खंजर" Premchand Story "Wafa Ka Khanjar"

    22/01/2019 Duration: 30min

    जयगढ़ और विजयगढ़ दो बहुत ही हरे-भ्ररे, सुसंस्कृत, दूर-दूर तक फैले हुए, मजबूत राज्य थे। दोनों ही में विद्या और कलाद खूब उन्न्त थी। दोनों का धर्म एक, रस्म-रिवाज एक, दर्शन एक, तरक्की का उसूल एक, जीवन मानदण्ड एक, और जबान में भी नाम मात्र का ही अन्तर था। जयगढ़ के कवियों की कविताओं पर विजयगढ़ वाले सर धुनते और विजयगढ़ी दार्शनिकों के विचार जयगढ़ के लिए धर्म की तरह थे। जयगढ़ी सुन्दरियों से विजयगढ़ के घर-बार रोशन होते थे और विजयगढ़ की देवियां जयगढ़ में पुजती थीं। तब भी दोनों राज्यों में ठनी ही नहीं रहती थी बल्कि आपसी फूट और ईर्ष्या-द्वेष का बाजार बुरी तरह गर्म रहता और दोनों ही हमेशा एक-दूसरे के खिलाफ़ खंजर उठाए थे। जयगढ़ में अगर कोई देश को सुधार किया जाता तो विजयगढ़ में शोर मच जाता कि हमारी जिंदगी खतरे में है। इसी तरह तो विजयगढ़ में कोई व्यापारिक उन्नति दिखायी देती तो जयगढ़ में शोर मच जाता था। जयगढ़ अगर रेलवे की कोई नई शाख निकालता तो विजयगढ़ उसे अपने लिए काला सांप समझता और विजयगढ़ में कोई नया जहाज तैयार होता तो जयगढ़ को वह खून पीने वाला घडियाल नजर आता था। अगर यह बदुगमानियॉँ अनपढ़ या साधारण लोगों में पैदा होतीं तो एक बा

  • 15: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी पाप की पराजय, Paap Ki Parajay - Story Written By Jaishankar Prasad

    21/01/2019 Duration: 11min

    घने हरे कानन के हृदय में पहाड़ी नदी झिर-झिर करती बह रही है। गाँव से दूर, बन्दूक लिये हुए शिकारी के वेश में, घनश्याम दूर बैठा है। एक निरीह शशक मारकर प्रसन्नता से पतली-पतली लकड़ियों में उसका जलना देखता हुआ प्रकृति की कमनीयता के साथ वह बड़ा अन्याय कर रहा है। किन्तु उसे दायित्व-विहीन विचारपति की तरह बेपरवाही है। जंगली जीवन का आज उसे बड़ा अभिमान है। अपनी सफलता पर आप ही मुग्ध होकर मानव-समाज की शैशवावस्था की पुनरावृत्ति करता हुआ निर्दय घनश्याम उस अधजले जन्तु से उदर भरने लगा। तृप्त होने पर वन की सुधि आई। चकित होकर देखने लगा कि यह कैसा रमणीय देश है। थोड़ी देर में तन्द्रा ने उसे दबा दिया। वह कोमल वृत्ति विलीन हो गयी। स्वप्न ने उसे फिर उद्वेलित किया। निर्मल जल-धारा से धुले हुए पत्तों का घना कानन, स्थान-स्थान पर कुसुमित कुञ्ज, आन्तरिक और स्वाभाविक आलोक में उन कुञ्जों की कोमल छाया, हृदय-स्पर्शकारी शीतल पवन का सञ्चार, अस्फुट आलेख्य के समान उसके सामने स्फुरित होने लगे। घनश्याम को सुदूर से मधुर झंकार-सी सुनाई पड़ने लगी। उसने अपने को व्याकुल पाया। देखा तो एक अद्‌भुत दृश्य! इन्द्रनील की पुतली फूलों से सजी हुई झरने के उस पार प

  • 16: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी अघोरी का मोह, Aghori Ka Moh - Story Written By Jaishankar Prasad

    19/01/2019 Duration: 09min

    ‘आज तो भैया, मूँग की बरफी खाने को जी नहीं चाहता, यह साग तो बड़ा ही चटकीला है। मैं तो....’’ ‘‘नहीं-नहीं जगन्नाथ, उसे दो बरफी तो ज़रूर ही दे दो।’’ ‘‘न-न-न। क्या करते हो, मैं गंगा जी में फेंक दूँगा।’’ ‘‘लो, तब मैं तुम्ही को उलटे देता हूँ।’’ ललित ने कह कर किशोर की गर्दन पकड़ ली। दीनता से भोली और प्रेम-भरी आँखों से चन्द्रमा की ज्योति में किशोर ने ललित की ओर देखा। ललित ने दो बरफी उसके खुले मुख में डाल दी। उसने भरे हुए मुख से कहा,-भैया, अगर ज़्यादा खाकर मैं बीमार हो गया।’’ ललित ने उसके बर्फ़ के समान गालों पर चपत लगाकर कहा-‘‘तो मैं सुधाविन्दु का नाम गरलधारा रख दूँगा। उसके एक बूँद में सत्रह बरफी पचाने की ताकत है। निर्भय होकर भोजन और भजन करना चाहिए।’’ शरद की नदी अपने करारों में दबकर चली जा रही है। छोटा-सा बजरा भी उसी में अपनी इच्छा से बहता हुआ जा रहा है, कोई रोक-टोक नहीं है। चाँदनी निखर रही थी, नाव की सैर करने के लिए ललित अपने अतिथि किशोर के साथ चला आया है। दोनों में पवित्र सौहाद्र्र है। जाह्नवी की धवलता आ दोनों की स्वच्छ हँसी में चन्द्रिका के साथ मिलकर एक कुतूहलपूर्ण जगत् को देखने के लिए आवाहन कर रही है। धनी सन्ता

  • 15: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी गुदड़ी में लाल, Gudadi Mein Lal - Story Written By Jaishankar Prasad

    18/01/2019 Duration: 06min

    दीर्घ निश्वासों का क्रीड़ा-स्थल, गर्म-गर्म आँसुओं का फूटा हुआ पात्र! कराल काल की सारंगी, एक बुढिय़ा का जीर्ण कंकाल, जिसमें अभिमान के लय में करुणा की रागिनी बजा करती है। अभागिनी बुढिय़ा, एक भले घर की बहू-बेटी थी। उसे देखकर दयालु वयोवृद्ध, हे भगवान! कहके चुप हो जाते थे। दुष्ट कहते थे कि अमीरी में बड़ा सुख लूटा है। नवयुवक देश-भक्त कहते थे, देश दरिद्र है; खोखला है। अभागे देश में जन्मग्रहण करने का फल भोगती है। आगामी भविष्य की उज्ज्वलता में विश्वास रखकर हृदय के रक्त पर सन्तोष करे। जिस देश का भगवान् ही नहीं; उसे विपत्ति क्या! सुख क्या! परन्तु बुढिय़ा सबसे यही कहा करती थी-‘‘मैं नौकरी करूँगी। कोई मेरी नौकरी लगा दो।’’ देता कौन? जो एक घड़ा जल भी नहीं भर सकती, जो स्वयं उठ कर सीधा खड़ी नहीं हो सकती थी, उससे कौन काम कराये? किसी की सहायता लेना पसन्द नहीं, किसी की भिक्षा का अन्न उसके मुख में पैठता ही न था। लाचार होकर बाबू रामनाथ ने उसे अपनी दुकान में रख लिया। बुढिय़ा की बेटी थी, वह दो पैसे कमाती थी। अपना पेट पालती थी, परन्तु बुढिय़ा का विश्वास था कि कन्या का धन खाने से उस जन्म में बिल्ली, गिरगिट और भी क्या-क्या होता है। अप

  • 14: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी गूदड़ साई, Goodad Sai - Story Written By Jaishankar Prasad

    17/01/2019 Duration: 03min

    ‘‘साईं! ओ साईं!!’’ एक लड़के ने पुकारा। साईं घूम पड़ा। उसने देखा कि एक 8 वर्ष का बालक उसे पुकार रहा है। आज कई दिन पर उस मुहल्ले में साईं दिखलाई पड़ा है। साईं वैरागी था,-माया नहीं, मोह नहीं। परन्तु कुछ दिनों से उसकी आदत पड़ गयी थी कि दोपहर को मोहन के घर जाना, अपने दो-तीन गन्दे गूदड़ यत्न से रख कर उन्हीं पर बैठ जाता और मोहन से बातें करता। जब कभी मोहन उसे ग़रीब और भिखमंगा जानकर माँ से अभिमान करके पिता की नजर बचाकर कुछ साग-रोटी लाकर दे देता, तब उस साईं के मुख पर पवित्र मैत्री के भावों का साम्राज्य हो जाता। गूदड़ साईं उस समय 10 बरस के बालक के समान अभिमान, सराहना और उलाहना के आदान-प्रदान के बाद उसे बड़े चाव से खा लेता; मोहन की दी हुई एक रोटी उसकी अक्षय-तृप्ति का कारण होती। एक दिन मोहन के पिता ने देख लिया। वह बहुत बिगड़े। वह थे कट्टर आर्यसमाजी, ‘ढोंगी फ़कीरों पर उनकी साधारण और स्वाभाविक चिढ़ थी।’ मोहन को डाँटा कि वह इन लोगों के साथ बातें न किया करे। साईं हँस पड़ा, चला गया। उसके बाद आज कई दिन पर साईं आया और वह जान-बूझकर उस बालक के मकान की ओर नहीं गया; परन्तु पढक़र लौटते हुए मोहन ने उसे देखकर पुकारा और वह लौट भी आया

  • 13: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी प्रसाद, Prasad - Story Written By Jaishankar Prasad

    16/01/2019 Duration: 05min

    मधुप अभी किसलय-शय्या पर, मकरन्द-मदिरा पान किये सो रहे थे। सुन्दरी के मुख-मण्डल पर प्रस्वेद बिन्दु के समान फूलों के ओस अभी सूखने न पाये थे। अरुण की स्वर्ण-किरणों ने उन्हें गरमी न पहुँचायी थी। फूल कुछ खिल चुके थे! परन्तु थे अर्ध-विकसित। ऐसे सौरभपूर्ण सुमन सवेरे ही जाकर उपवन से चुन लिये थे। पर्ण-पुट का उन्हें पवित्र वेष्ठन देकर अञ्चल में छिपाये हुए सरला देव-मन्दिर में पहुँची। घण्टा अपने दम्भ का घोर नाद कर रहा था। चन्दन और केसर की चहल-पहल हो रही थी। अगुरु-धूप-गन्ध से तोरण और प्राचीर परिपूर्ण था। स्थान-स्थान पर स्वर्ण-श्रृंगार और रजत के नैवेद्य-पात्र, बड़ी-बड़ी आरतियाँ, फूल-चंगेर सजाये हुए धरे थे। देव-प्रतिमा रत्न-आभूषणों से लदी हुई थी। सरला ने भीड़ में घुस कर उसका दर्शन किया और देखा कि वहाँ मल्लिका की माला, पारिजात के हार, मालती की मालिका, और भी अनेक प्रकार के सौरभित सुमन देव-प्रतिमा के पदतल में विकीर्ण हैं। शतदल लोट रहे हैं और कला की अभिव्यक्तिपूर्ण देव-प्रतिमा के ओष्ठाधार में रत्न की ज्योति के साथ बिजली-सी मुसक्यान-रेखा खेल रही थी, जैसे उन फूलों का उपहास कर रही हो। सरला को यही विदित हुआ कि फूलों की यहाँ गिनती

  • 12: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी मदन मृणालिनी, Madan Mrinalini - Story Written By Jaishankar Prasad

    15/01/2019 Duration: 40min

    विजया-दशमी का त्योहार समीप है, बालक लोग नित्य रामलीला होने से आनन्द में मग्न हैं। हाथ में धनुष और तीर लिये हुए एक छोटा-सा बालक रामचन्द्र बनने की तैयारी में लगा हुआ है। चौदह वर्ष का बालक बहुत ही सरल और सुन्दर है। खेलते-खेलते बालक को भोजन की याद आई। फिर कहाँ का राम बनना और कहाँ की रामलीला। चट धनुष फेंककर दौड़ता हुआ माता के पास जा पहुँचा और उस ममता-मोहमयी माता के गले से लिपटकर-माँ! खाने को दे, माँ! खाने को दे-कहता हुआ जननी के चित्त को आनन्दित करने लगा। जननी बालक का मचलना देखकर प्रसन्न हो रही थी और थोड़ी देर तक बैठी रहकर और भी मचलना देखा चाहती थी। उसके यहाँ एक पड़ोसिन बैठी थी, अतएव वह एकाएक उठकर बालक को भोजन देने में असमर्थ थी। सहज ही असन्तुष्ट हो जाने वाली पड़ोस की स्त्रियों का सहज क्रोधमय स्वभाव किसी से छिपा न होगा। यदि वह तत्काल उठकर चली जाती, तो पड़ोसिन क्रुद्ध होती। अत: वह उठकर बालक को भोजन देने में आनाकानी करने लगी। बालक का मचलना और भी बढ़ चला। धीरे-धीरे वह क्रोधित हो गया, दौड़कर अपनी कमान उठा लाया; तीर चढ़ाकर पड़ोसिन को लक्ष्य किया और कहा-तू यहाँ से जा, नहीं तो मैं मारता हूँ। दोनों स्त्रियाँ केवल हँसकर

  • 11: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी अशोक, Ashok - Story Written By Jaishankar Prasad

    14/01/2019 Duration: 22min

    राजकीय कानन में अनेक प्रकार के वृक्ष, सुरभित सुमनों से भरे झूम रहे हैं। कोकिला भी कूक-कूक कर आम की डालों को हिलाये देती है। नव-वसंत का समागम है। मलयानिल इठलाता हुआ कुसुम-कलियों को ठुकराता जा रहा है। इसी समय कानन-निकटस्थ शैल के झरने के पास बैठकर एक युवक जल-लहरियों की तरंग-भंगी देख रहा है। युवक बड़े सरल विलोकन से कृत्रिम जलप्रपात को देख रहा है। उसकी मनोहर लहरियाँ जो बहुत ही जल्दी-जल्दी लीन हो स्रोत में मिलकर सरल पथ का अनुकरण करती हैं, उसे बहुत ही भली मालूम हो रही हैं। पर युवक को यह नहीं मालूम कि उसकी सरल दृष्टि और सुन्दर अवयव से विवश होकर एक रमणी अपने परम पवित्र पद से च्युत होना चाहती है। देखो, उस लता-कुंज में, पत्तियों की ओट में, दो नीलमणि के समान कृष्णतारा चमककर किसी अदृश्य आश्चर्य का पता बता रहे हैं। नहीं-नहीं, देखो, चन्द्रमा में भी कहीं तारे रहते हैं? वह तो किसी सुन्दरी के मुख-कमल का आभास है। युवक अपने आनन्द में मग्न है। उसे इसका कुछ भी ध्यान नहीं है कि कोई व्याघ्र उसकी ओर अलक्षित होकर बाण चला रहा है। युवक उठा, और उसी कुंज की ओर चला। किसी प्रच्छन्न शक्ति की प्रेरणा से वह उसी लता-कुञ्ज की ओर बढ़ा। किन्तु

  • 10: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी चित्तौड़ उद्धार, Chittod Uddhar - Story Written By Jaishankar Prasad

    13/01/2019 Duration: 11min

    कैलवाड़ा प्रदेश के छोटे-से दुर्ग के एक प्रकोष्ठ में राजकुमार हम्मीर बैठे हुए चिन्ता में निमग्न हैं। सोच रहे थे - जिस दिन मुंज का सिर मैंने काटा, उसी दिन एक भारी बोझ मेरे सिर दिया गया, वह पितृव्य का दिया हुआ महाराणा - वंश का राजतिलक है, उसका पूरा निर्वाह जीवन भर करना कर्तव्य है। चित्तौर का उद्धार करना ही मेरा प्रधान लक्ष्य है। पर देखूँ, ईश्वर कैसे इसे पूरा करता है। इस छोटी-सी सेना से, यथोचित धन का अभाव रहते, वह क्योंकर हो सकता है? रानी मुझे चिन्ताग्रस्त देखकर यही समझती है कि विवाह ही मेरे चिन्तित होने का कारण है। मैं उसकी ओर देखकर मालदेव पर कोई अत्याचार करने पर संकुचित होता हूँ। ईश्वर की कृपा से एक पुत्र भी हुआ, किन्तु मुझे नित्य चिन्तित देखकर रानी पिता के यहाँ चली गयी है। यद्यपि देवता-पूजन करने के लिये ही वहाँ उनका जाना हुआ है, किन्तु मेरी उदासीनता भी कारण है। भगवान एकलिंगेश्वर कैसे इस दु:साध्य कार्य को पूर्ण करते हैं, यह वही जानें। इसी तरह की अनेक विचार-तरंगें मानस में उठ रही थीं। सन्ध्या की शोभा सामने की गिरि-श्रेणी पर अपनी लीला दिखा रखी है, किन्तु चिन्तित हम्मीर को उसका आनन्द नहीं। देखते-देखते अन्धकार ने

  • 19: चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी उसने कहा था, Usne Kaha Tha - Story Writer Chandradhar Sharma Guleri

    13/01/2019 Duration: 25min

    बडे-बडे शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जवान के कोड़ो से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे़-बडे़ शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर, 'बचो खालसाजी। "हटो भाईजी।"ठहरना भाई जी।"आने दो लाला जी।"हटो बाछा।' - कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पडे़। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं

  • 9: जयशंकर प्रसाद की लिखी कहानी सिकंदर की शपथ, Sikandar Ki Shapath - Story Written By Jaishankar Prasad

    12/01/2019 Duration: 10min

    सूर्य की चमकीली किरणों के साथ, यूनानियों के बरछे की चमक से ‘मिंगलौर’-दुर्ग घिरा हुआ है। यूनानियों के दुर्ग तोड़नेवाले यन्त्र दुर्ग की दीवालों से लगा दिये गये हैं, और वे अपना कार्य बड़ी शीघ्रता के साथ कर रहे हैं। दुर्ग की दीवाल का एक हिस्सा टूटा और यूनानियों की सेना उसी भग्न मार्ग से जयनाद करती हुई घुसने लगी। पर वह उसी समय पहाड़ से टकराये हुए समुद्र की तरह फिरा दी गयी, और भारतीय युवक वीरों की सेना उनका पीछा करती हुई दिखाई पड़ने लगी। सिकंदर उनके प्रचण्ड अस्त्राघात को रोकता पीछे हटने लगा। अफ़ग़ानिस्तान में ‘अश्वक’ वीरों के साथ भारतीय वीर कहाँ से आ गये? यह शंका हो सकती है, किन्तु पाठकगण! वे निमन्त्रित होकर उनकी रक्षा के लिये सुदूर से आये हैं, जो कि संख्या में केवल सात हज़ार होने पर भी ग्रीकों की असंख्य सेना को बराबर पराजित कर रहे हैं। सिकंदर को उस सामान्य दुर्ग के अवरोध में तीन दिन व्यतीत हो गये। विजय की सम्भावना नहीं है, सिकंदर उदास होकर कैम्प में लौट गया, और सोचने लगा। सोचने की बात ही है। ग़ाजा और परसिपोलिस आदि के विजेता को अफ़ग़ानिस्तान के एक छोटे-से दुर्ग के जीतने में इतना परिश्रम उठाकर भी सफलता मिलती नहीं

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