Stories Of Premchand

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Synopsis

Stories of Premchand narrated by various artists

Episodes

  • 11: प्रेमचंद की कहानी "पंडित मोटेराम की डायरी" Premchand Story "Pandit Moteram Ki Diary"

    14/12/2018 Duration: 38min

    अच्छा, अब दूसरी बात लीजिए। धन तो आप सबका बराबर कर देना चाहते हैं; लेकिन कृपा करके यह बतलाइए कि आप सबके पेट कैसे बराबर कर देंगे? आचार्य नरेन्द्रदेवजी एक-दो फुलके और आध घूँट दूध पीकर रह सकते हैं; मगर मुझे तो पूजा करने के बाद, मध्याह्न, तीसरे पहर और रात को, चार बार तर माल चकाचक चाहिए, जिसमें लड्डू, हलवा, मलाई, बादाम, कलाकन्द आदि का प्राधान्य हो। अगर आपका साम्यवाद इसकी गारण्टी करे कि वह मुझे इच्छापूर्ण भोजन देगा तो मैं उस पर विचार कर सकता हूँ और अगर आप चाहते हों कि मैं भी दो फुलके और तोले भर दूध और दो तोले भाजी खाकर रहूँ तो ऐसे साम्यवाद को मेरा दूर ही से प्रणाम है। मैं धन नहीं माँगता; लेकिन भोजन आँतफाड़ चाहता हूँ, अगर इस तरह की गारण्टी दी गयी, तो वचन देता हूँ कि मैं और मेरे अनेक मित्र साम्यवादी बनने को तैयार हो जाएँगे। लेकिन एक भोजन ही से तो काम नहीं चलता। कपड़ा ही ले लीजिए। आपको एक कुरता और एक टोपी चाहिए। कुरते में एक गज से अधिक खद्दर न लगेगा। मैं लम्बी अँगरखी पहनता हूँ, जिसमें सात गज से कम कपड़ा नहीं लगता। मैंने दरजी के सामने बैठकर खुद कटवाया है और इसका विश्वास दिलाता हूँ कि इससे कम में मेरी अँगरखी नहीं बन सकत

  • 10: प्रेमचंद की कहानी "होली का उपहार" Premchand Story "Holi Ka Uphar"

    12/12/2018 Duration: 13min

    सन्ध्या हो गयी थी। अमीनाबाद में आकर्षण का उदय हो गया था। सूर्य की प्रतिभा विद्युत-प्रकाश के बुलबुलों में अपनी स्मृति छोड़ गयी थी। अमरकान्त दबे पाँव हाशिम की दूकान के सामने पहुँचा। स्वयंसेवकों का धरना भी था और तमाशाइयों की भीड़ भी। उसने दो-तीन बार अन्दर जाने के लिए कलेजा मज़बूत किया, पर फुटपाथ तक जाते-जाते हिम्मत ने जवाब दे दिया। मगर साड़ी लेना ज़रूरी था। वह उसकी आँखों में खुब गयी थी। वह उसके लिए पागल हो रहा था। आखिर उसने पिछवाड़े के द्वार से जाने का निश्चय किया। जाकर देखा, अभी तक वहाँ कोई वालण्टियर न था। जल्दी से एक सपाटे में भीतर चला गया और बीस-पचीस मिनट में उसी नमूने की एक साड़ी लेकर फिर उसी द्वार पर आया; पर इतनी ही देर में परिस्थिति बदल चुकी थी। तीन स्वयंसेवक आ पहुँचे थे। अमरकान्त एक मिनट तक द्वार पर दुविधे में खड़ा रहा। फिर तीर की तरह निकल भागा और अन्धाधुन्ध भागता चला गया। दुर्भाग्य की बात! एक बुढिय़ा लाठी टेकती हुई चली आ रही थी। अमरकान्त उससे टकरा गया। बुढिय़ा गिर पड़ी और लगी गालियाँ देने-आँखों में चर्बी छा गयी है क्या? देखकर नहीं चलते? यह जवानी ढै जाएगी एक दिन। अमरकान्त के पाँव आगे न जा सके। बुढिय़ा

  • 9: प्रेमचंद की कहानी "आहुती" Premchand Story "Aahuti"

    10/12/2018 Duration: 22min

    आनन्द और विशम्भर दोनों ही यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे। आनन्द के हिस्से में लक्ष्मी भी पड़ी थी, सरस्वती भी; विशम्भर फूटी तकदीर लेकर आया था। प्रोफेसरों ने दया करके एक छोटा-सा वजीफा दे दिया था। बस, यही उसकी जीविका थी। रूपमणि भी साल भर पहले उन्हीं के समकक्ष थी; पर इस साल उसने कालेज छोड़ दिया था। स्वास्थ्य कुछ बिगड़ गया था। दोनों युवक कभी-कभी उससे मिलने आते रहते थे। आनन्द आता था। उसका हृदय लेने के लिए, विशम्भर आता था यों ही। जी पढ़ने में न लगता या घबड़ाता, तो उसके पास आ बैठता था। शायद उससे अपनी विपत्ति-कथा कहकर उसका चित्त कुछ शान्त हो जाता था। आनन्द के सामने कुछ बोलने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। आनन्द के पास उसके लिए सहानुभूति का एक शब्द भी न था। वह उसे फटकारता था; ज़लील करता था और बेवकूफ बनाता था। विशम्भर में उससे बहस करने की सामथ्र्य न थी। सूर्य के सामने दीपक की हस्ती ही क्या? आनन्द का उस पर मानसिक आधिपत्य था। जीवन में पहली बार उसने उस आधिपत्य को अस्वीकार किया था। और उसी की शिकायत लेकर आनन्द रूपमणि के पास आया था। महीनों विशम्भर ने आनन्द के तर्क पर अपने भीतर के आग्रह को ढाला; पर तर्क से परास्त होकर भी उसका हृदय व

  • 8: प्रेमचंद की कहानी "दो बहने" Premchand Story "Do Bahne"

    08/12/2018 Duration: 34min

    देखने या बनाव-सिंगार की आदी नहीं है। ये औरतें दिल में न जाने क्या समझें। मगर यहाँ कोई आईना तो होगा ही। ड्राइंग-रूम में ज़रूर ही होगा। वह उठकर ड्रांइग-रूम में गयी और क़द्देआदम शीशे में अपनी सूरत देखी। वहाँ इस वक्त और कोई न था। मर्द बाहर सहन में थे, औरतें गाने-बजाने में लगी हुई थीं। उसने आलोचनात्मक दृष्टि से एक-एक अंग को, अंगों के एक-एक विन्यास को देखा। उसका अंग-विन्यास, उसकी मुखछवि निष्कलंक है। मगर वह ताजगी, वह मादकता, वह माधुर्य नहीं है। हाँ, नहीं है। वह अपने को धोखे में नहीं डाल सकती। कारण क्या है? यही कि रामदुलारी आज खिली है, उसे खिले जमाना हो गया। लेकिन इस ख्याल से उसका चित्त शान्त नहीं होता। वह रामदुलारी से हेठी बनकर नहीं रह सकती। ये पुरुष भी कितने गावदी होते हैं। किसी में भी सच्चे सौन्दर्य की परख नहीं। इन्हें तो जवानी और चंचलता और हाव-भाव चाहिए। आँखें रखकर भी अन्धे बनते हैं। भला इन बातों का आपसे क्या सम्बन्ध! ये तो उम्र के तमाशे हैं। असली रूप तो वह है, जो समय की परवाह न करे। उसके कपड़ों में रामदुलारी को खड़ा कर दो, फिर देखो, यह सारा जादू कहाँ उड़ जाता है। चुड़ैल-सी नजर आये। मगर इन अन्धों को कौन समझाये। म

  • 7: प्रेमचंद की कहानी "तथ्य" Premchand Story "Tathya"

    06/12/2018 Duration: 22min

    इतना कहकर अमृत चुप हो गया। अभी तक यह बात कभी उसके ध्यान में ही नहीं आयी थी कि पूर्णिमा कहीं चली भी जाएगी। इतनी दूर तक सोचने की उसे फुरसत ही नहीं थी। प्रसन्नता तो वर्तमान में ही मस्त रहती है। यदि भविष्य की बातें सोचने लगे तो फिर प्रसन्नता ही क्यों रहे ? और अमृत जितनी जल्दी इस दुर्घटना के होने की कल्पना कर सकता था, उससे पहले ही यह दुर्घटना एक खबर के रूप में सामने आ ही गयी। पूर्णिमा के ब्याह की एक जगह बातचीत हो गयी। अच्छा दौलतमन्द ख़ानदान था और साथ ही इज्जतदार भी। पूर्णिमा की माँ ने उसे बहुत खुशी से मंजूर भी कर लिया। ग़रीबी की उस हालत में उसकी नजरों में जो चीज़ सबसे ज़्यादा प्यारी थी,वह दौलत थी। और यहाँ पूर्णिमा के लिए सब तरह से सुखी रहकर ज़िन्दगी बिताने के सामान मौजूद थे। मानो उसे मुँहमाँगी मुराद मिल गयी हो। इससे पहले वह मारे फ़िक्र के घुली जाती थी। लडक़ी के ब्याह का ध्यान आते ही उसका कलेजा धडक़ने लगता था। अब मानो परमात्मा ने अपने एक ही कटाक्ष से उसकी सारी चिन्ताओं और विकलताओं का अन्त कर दिया। अमृत ने सुना तो उसकी हालत पागलों की-सी हो गई। वह बेतहाशा पूर्णिमा के घर की तरफ दौड़ा, मगर फिर लौट पड़ा। होश ने उसके प

  • 6: प्रेमचंद की कहानी "जीवन सार" Premchand Story "Jeevan Saar"

    04/12/2018 Duration: 23min

    मैंने समझा बेड़ा पार हुआ। फार्म लिया, खानापुरी की और पेश कर दिया। साहब उस समय कोई क्लास ले रहे थे। तीन बजे मुझे फार्म वापस मिला। उस पर लिखा था-इसकी योग्यता की जाँच की जाय। यह नई समस्या उपस्थित हुई। मेरा दिल बैठ गया। अँग्रेजी के सिवा और किसी विषय में पास होने की मुझे आशा न थी। और बीजगणित और रेखागणित से तो रूह काँपती थी। जो कुछ याद था, वह भी भूल-भाल गया था; लेकिन दूसरा उपाय ही क्या था? भाग्य का भरोसा करके क्लास में गया और अपना फार्म दिखाया। प्रोफेसर साहब बंगाली थे अंग्रेजी पढ़ा रहे थे। वाशिंगटन इर्विंग का ‘रिपिवान विंकिल’ था। मैं पीछे की कतार में जाकर बैठ गया और दो-ही-चार मिनिट में मुझे ज्ञात हो गया कि प्रोफेसर साहब अपने विषय के ज्ञाता हैं। घण्टा समाप्त होने पर उन्होंने आज के पाठ पर मुझसे कई प्रश्न किये और फ़ार्म पर ‘सन्तोषजनक’ लिख दिया। दूसरा घण्टा बीजगणित का था। इसके प्रोफेसर भी बंगाली थे। मैंने अपना फ़ार्म दिखाया। नई संस्थाओं मंस प्राय: वही छात्र आते हैं, जिन्हें कहीं जगह नहीं मिलती। यहाँ भी यही हाल था। क्लासों में अयोग्य छात्र भरे हुए थे। पहले रेले में जो आया, वह भरती हो गया। भूख में साग-पात सभी रुचिकर हो

  • 5: प्रेमचंद की कहानी "सांसारिक प्रेम और देश प्रेम" Premchand Story "Sansarik Prem Aur Desh Prem"

    02/12/2018 Duration: 25min

    मैग्डलीन का घर स्विटज़रलैण्ड में था। वह एक समृद्घ व्यापारी की बेटी थी और अनिन्द्य सुन्दरी। आन्तरिक सौन्दर्य में भी उसका जोड़ मिलना मुश्किल था। कितने ही अमीर और रईस लोग उसका पागलपन सर में रखते थे, मगर वह किसी को कुछ ख़याल में न लाती थी। मैजि़नी जब इटली से भागा तो स्विटज़रलैण्ड में आकर शरण ली। मैग्डलीन उस वक़्त भोली-भाली, जवानी की गोद में खेल रही थी। मैजि़नी की हिम्मत और कुर्बानियों की तारीफें पहले ही सुन चुकी थी। कभी-कभी अपनी माँ के साथ उसके यहाँ आने लगी और आपस का मिलना-जुलना जैसे-जैसे बढ़ा और मैजि़नी के भीतरी सौन्दर्य का ज्यों-ज्यों उसके दिल पर गहरा असर होता गया, उसकी मुहब्बत उसके दिल मे पक्की होती गयी। यहाँ तक कि उसने एक दिन खुद लाज शर्म को किनारे रखकर मैजि़नी के पैरों पर सिर रख़ दिया और कहा-मुझे अपनी सेवा मे स्वीकार कर लीजिए। मैजि़नी पर भी उस वक़्त जवानी छाई हुई थी, देश की चिन्ताओं ने अभी दिल को ठण्डा नहीं किया था। जवानी की पुरजोश उम्मीदें दिल में लहरें मार रही थीं, मगर उसने संकल्प कर लिया था कि मैं देश और जाति पर अपने को न्योछावर कर दूँगा। और इस संकल्प पर क़ायम रहा। एक ऐसी सुन्दर युवती के नाजुक-नाजुक होंठ

  • 4: प्रेमचंद की कहानी "शोक का पुरस्कार" Premchand Story "Shok Ka Puraskar"

    30/11/2018 Duration: 21min

    निरंजनदास यह कहकर चले गये। मैंने हजामत बनायी, कपड़े बदले और मिस लीलावती से मिलने का चाव मन में लेकर चला। वहाँ जाकर देखा तो ताला पड़ा हुआ है। मालूम हुआ कि मिस साहिबा की तबीयत दो-तीन दिन से ख़राब थी। आबहवा बदलने के लिए नैनीताल चली गयीं। अफ़सोस, मैं हाथ मलकर रह गया। क्या लीला मुझसे नाराज़ थी? उसने मुझे क्यों ख़बर नहीं दी। लीला, क्या तू बेवफा है, तुझसे बेवफ़ाई की उम्मीद न थी। फ़ौरन पक्का इरादा कर लिया कि आज की डाक से नैनीताल चल दूँ। मगर घर आया तो लीला का ख़त मिला। काँपते हुए हाँथों से खोला, लिखा था-मैं बीमार हूँ, मेरी जीने की कोई उम्मीद नहीं है, डाक्टर कहते हैं कि प्लेग है। जब तक तुम आओगे, शायद मेरा क़िस्सा तमाम हो जाएगा। आखिरी वक़्त तुमसे न मिलने का सख्त सदमा है। मेरी याद दिल में क़ायम रखना। मुझे सख्त अफ़सोस है कि तुमसे मिलकर नहीं आयी। मेरा क़सूर माफ करना और अपनी अभागिनी लीला को भुला मत देना। ख़त मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़ा। दुनिया आँखों में अँधेरी हो गयी, मुँह से एक ठण्डी आह निकली। बिना एक क्षण गँवाये मैंने बिस्तर बाँधा और नैनीताल चलने के लिए तैयार हो गया। घर से निकला ही था कि प्रोफेसर बोस से मुलाक़ात हो गयी। का

  • 3: प्रेमचंद की कहानी "यही मेरा वतन" Premchand Story "Yahi Mera Watan"

    21/11/2018 Duration: 15min

    उस बरगद के पेड़ की तरफ़ दौड़ा जिसकी सुहानी छाया में हमने बचपन के मज़े लूटे थे, जो हमारे बचपन का हिण्डोला और ज़वानी की आरामगाह था। इस प्यारे बरगद को देखते ही रोना-सा आने लगा और ऐसी हसरतभरी, तड़पाने वाली और दर्दनाक यादें ताज़ी हो गयीं कि घण्टों ज़मीन पर बैठकर रोता रहा। यही प्यारा बरगद है जिसकी फुनगियों पर हम चढ़ जाते थे, जिसकी जटाएँ हमारा झूला थीं और जिसके फल हमें सारी दुनिया की मिठाइयों से ज़्यादा मज़ेदार और मीठे मालूम होते थे। वह मेरे गले में बाँहें डालकर खेलने वाले हमजोली जो कभी रूठते थे, कभी मनाते थे, वह कहाँ गये? आह, मैं बेघरबार मुसाफ़िर क्या अब अकेला हूँ? क्या मेरा कोर्ई साथी नहीं। इस बरगद के पास अब थाना और पेड़ के नीचे एक कुर्सी पर कोई लाल पगड़ी बाँधे बैठा हुआ था। उसके आसपास दस-बीस और लाल पगड़ीवाले हाथ बाँधे खड़े थे और एक अधनंगा अकाल का मारा आदमी जिस पर अभी-अभी चाबुकों की बौछार हुई थी, पड़ा सिसक रहा था। मुझे ख़याल आया, यह मेरा प्यारा देश नहीं है, यह कोई और देश है, यह योरप है, अमरीका है, मगर मेरा प्यारा देश नहीं है, हरगिज़ नहीं। इधर से निराश होकर मैं उस चौपाल की ओर चला जहाँ शाम को पिताजी गाँव के और बड़े-

  • 2: प्रेमचंद की कहानी "शेख़ मख़मूर" Premchand Story "Shekh Makhmoor"

    19/11/2018 Duration: 36min

    मुल्के जन्नतनिशाँ के इतिहास में बहुत अँधेरा वक़्त था जब शाह किशवर की फ़तहों की बाढ़ बड़े ज़ोर-शोर के साथ उस पर आयी। सारा देश तबाह हो गया। आज़ादी की इमारतें ढह गयीं और जानोमाल के लाले पड़ गये। शाह बामुराद खूब जी तोडक़र लड़ा, खूब बहादुरी का सबूत दिया और अपने ख़ानदान के तीन लाख़ सूरमाओं को अपने देश पर चढ़ा दिया मगर विजेता की पत्थर काट देने वाली तलवार के मुक़ाबले में उसकी यह मर्दाना जाँबाजि़याँ बेअसर साबित हुईं। मुल्क पर शाह किशवरकुशा की हुकूमत का सिक्का जम गया और शाह बामुराद अकेला और तनहा बेयारो मददगार अपना सब कुछ आज़ादी के नाम पर कुर्बान करके एक झोंपड़े में जि़न्दगी बसर करने लगा। यह झोंपड़ा पहाड़ी इलाक़े में था। आस-पास जंगली क़ौमें आबाद थीं और दूर-दूर तक पहाड़ों के सिलसिले नज़र आते थे। इस सुनसान जगह में शाह बामुराद मुसीबत के दिन काटने लगा, दुनिया में अब उसका कोई दोस्त न था। वह दिन भर आबादी से दूर एक चट्टान पर अपने ख़याल में मस्त बैठा रहता था। लोग समझते थे कि यह कोई ब्रह्म ज्ञान के नशे में चूर सूफ़ी है। शाह बामुराद को यों बसर करते एक ज़माना बीत गया और जवानी की बिदाई और बुढ़ापे के स्वागत की तैयारियाँ होने लगीं।

  • 1: प्रेमचंद की कहानी "दुनिया का सबसे अनमोल रत्न" Premchand Story "Duniya Ka Sabse Anmol Ratn"

    17/11/2018 Duration: 22min

    एक रोज वह शाम के वक्त किसी नदी के किनारे खस्ताहाल पड़ा हुआ था। बेखुदी के नशे से चौंका तो क्या देखता है कि चन्दन की एक चिता बनी हुई है और उस पर एक युवती सुहाग के जोड़े पहने सोलहों सिंगार किये बैठी हुई है। उसकी जाँघ पर उसके प्यारे पति का सर है। हज़ारों आदमी गोल बाँधे खड़े हैं और फूलों की बरखा कर रहे हैं। यकायक चिता में से खुद-ब-खुद एक लपट उठी। सती का चेहरा उस वक्त एक पवित्र भाव से आलोकित हो रहा था। चिता की पवित्र लपटें उसके गले से लिपट गयीं और दम-के-दम में वह फूल-सा शरीर राख का ढेर हो गया। प्रेमिका ने अपने को प्रेमी पर न्योछावर कर दिया और दो प्रेमियों के सच्चे, पवित्र, अमर प्रेम की अन्तिम लीला आँख से ओझल हो गयी। जब सब लोग अपने घरों को लौटे तो दिलफ़िगार चुपके से उठा और अपने चाक-दामन कुरते में यह राख का ढेर समेट लिया और इस मुट्ठी भर राख को दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ समझता हुआ, सफलता के नशे में चूर, यार के कूचे की तरफ चला। अबकी ज्यों-ज्यों वह अपनी मंज़िल के क़रीब आता था, उसकी हिम्मतें बढ़ती जाती थीं। कोई उसके दिल में बैठा हुआ कह रहा था-अबकी तेरी जीत है और इस ख़याल ने उसके दिल को जो-जो सपने दिखाए उनकी चर्चा व्यर्थ ह

  • 33: प्रेमचंद की कहानी "लाग डाट" Premchand Story "Laag Daat"

    16/11/2018 Duration: 15min

    चौधरी के उपदेश सुनने के लिए जनता टूटती थी। लोगों को खड़े होने को जगह न मिलती। दिनोंदिन चौधरी का मान बढ़ने लगा। उनके यहाँ नित्य पंचायतों की राष्ट्रोन्नति की चर्चा रहती जनता को इन बातों में बड़ा आनंद और उत्साह होता। उनके राजनीतिक ज्ञान की वृद्धि होती। वह अपना गौरव और महत्त्व समझने लगे उन्हें अपनी सत्ता का अनुभव होने लगा। निरंकुशता और अन्याय पर अब उनकी तिउरियाँ चढ़ने लगीं। उन्हें स्वतंत्रता का स्वाद मिला। घर की रुई घर का सूत घर का कपड़ा घर का भोजन घर की अदालत न पुलिस का भय न अमला की खुशामद सुख और शांति से जीवन व्यतीत करने लगे। कितनों ही ने नशेबाजी छोड़ दी और सद्भावों की एक लहर-सी दौड़ने लगी। लेकिन भगत जी इतने भाग्यशाली न थे। जनता को दिनोंदिन उनके उपदेशों से अरुचि होती जाती थी। यहाँ तक कि बहुधा उनके श्रोताओं में पटवारी चौकीदार मुदर्रिस और इन्हीं कर्मचारियों के मित्रों के अतिरिक्त और कोई न होता था। कभी-कभी बड़े हाकिम भी आ निकलते और भगत जी का बड़ा आदर-सत्कार करते। जरा देर के लिए भगत जी के आँसू पुँछ जाते लेकिन क्षण-भर का सम्मान आठों पहर के अपमान की बराबरी कैसे करता ! जिधर निकल जाते उधर ही उँगलियाँ उठने लगतीं। कोई क

  • 34: प्रेमचंद की कहानी "जुलूस" Premchand Story "Juloos"

    16/11/2018 Duration: 25min

    शम्भू एक मिनट तक मौन खड़ा रहा। एकाएक उसने भी दूकान बढ़ायी और बोला-एक दिन तो मरना ही है, जो कुछ होना है, हो। आखिर वे लोग सभी के लिए तो जान दे रहे हैं। देखते-देखते अधिकांश दूकानें बंद हो गयीं। वह लोग, जो दस मिनट पहले तमाशा देख रहे थे इधर-उधर से दौड़ पड़े और हजारों आदमियों का एक विराट दल घटनास्थल की ओर चला। यह उन्मत्त, हिंसामद से भरे हुए मनुष्यों का समूह था, जिसे सिद्धांत और आदर्श की परवाह न थी। जो मरने के लिए ही नहीं, मारने के लिए भी तैयार थे। कितनों ही के हाथों में लाठियाँ थीं, कितने ही जेबों में पत्थर भरे हुए थे। न कोई किसी से कुछ बोलता था, न पूछता था। बस, सब-के-सब मन में एक दृढ़ संकल्प किये लपके चले जा रहे थे, मानो कोई घटा उमड़ी चली आती हो। इस दल को दूर से देखते ही सवारों में कुछ हलचल पड़ी। बीरबल सिंह के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। डी. एस. पी. ने अपनी मोटर बढ़ायी। शांति और अहिंसा के व्रतधारियों पर डंडे बरसाना और बात थी, एक उन्मत्त दल से मुकाबला करना दूसरी बात। सवार और सिपाही पीछे खिसक गये।

  • 30: प्रेमचंद की कहानी "आदर्श विरोध" Premchand Story "Aadarsh Virodh"

    15/11/2018 Duration: 20min

    मेहता महोदय ने बजट पर जो विचार प्रकट किये, उनसे समस्त देश में हलचल मच गयी। एक दल उन विचारों को देववाणी समझता था, दूसरा दल भी कुछ अंशों को छोड़कर शेष विचारों से सहमत था, किंतु तीसरा दल वक्तृता के एक-एक शब्द पर निराशा से सिर धुनता और भारत की अधोगति पर रोता था। उसे विश्वास ही न आता था कि ये शब्द मेहता की जबान से निकले होंगे। मुझे आश्चर्य है कि गैर-सरकारी सदस्यों ने एक स्वर से प्रस्तावित व्यय के उस भाग का विरोध किया है, जिस पर देश की रक्षा, शान्ति, सुदशा और उन्नति अवलम्बित है। आप शिक्षा-सम्बन्धी सुधारों को, आरोग्य विधान को, नहरों की वृद्धि को अधिक महत्त्वपूर्ण समझते हैं। आपको अल्प वेतन वाले कर्मचारियों का अधिक ध्यान है। मुझे आप लोगों के राजनैतिक ज्ञान पर इससे अधिक विश्वास था। शासन का प्रधान कर्तव्य भीतर और बाहर की अशांतिकारी शक्तियों से देश को बचाना है। शिक्षा और चिकित्सा, उद्योग और व्यवसाय गौण कर्तव्य हैं। हम अपनी समस्त प्रजा को अज्ञान-सागर में निमग्न देख सकते हैं, समस्त देश को प्लेग और मलेरिया में ग्रस्त रख सकते हैं, अल्प वेतन वाले कर्मचारियों को दारुण चिंता का आहार बना सकते हैं, कृषकों को प्रकृति की अनिश्चित

  • 32: प्रेमचंद की कहानी "जीवन का शाप" Premchand Story "Jeevan Ka Shaap"

    14/11/2018 Duration: 26min

    कावसजी ने कभी मन में भी इसे स्वीकार करने का साहस नहीं किया; मगर उनके हृदय में यह लालसा छिपी हुई थी कि गुलशन की जगह शीरीं होती, तो उनका जीवन कितना गुलज़ार होता ! कभी-कभी गुलशन की कटूक्तियों से वह इतने दुखी हो जाते कि यमराज का आवाहन करते। घर उनके लिए कैदखाने से कम जान-लेवा न था और उन्हें जब अवसर मिलता, सीधे शीरीं के घर जाकर अपने दिल की जलन बुझा आते। एक दिन कावसजी सबेरे गुलशन से झल्लाकर शापूरजी के टेरेस में पहुँचे, तो देखा शीरीं बानू की आँखें लाल हैं और चेहरा भभराया हुआ है, जैसे रोकर उठी हो। कावसजी ने चिन्तित होकर पूछा, ‘आपका जी कैसा है, बुखार तो नहीं आ गया।‘ शीरीं ने दर्द-भरी आँखों से देखकर रोनी आवाज़ से कहा, ‘नहीं, बुखार तो नहीं है, कम-से-कम देह का बुखार तो नहीं है।‘ कावसजी इस पहेली का कुछ मतलब न समझे। शीरीं ने एक क्षण मौन रहकर फिर कहा, ‘आपको मैं अपना मित्र समझती हूँ मि. कावसजी ! आपसे क्या छिपाऊँ। मैं इस जीवन से तंग आ गयी हूँ। मैंने अब तक हृदय की आग हृदय में रखी; लेकिन ऐसा मालूम होता है कि अब उसे बाहर न निकालूँ, तो मेरी हड्डियाँ तक जल जायेंगी। इस वक्त आठ बजे हैं, लेकिन मेरे रंगीले पिया का कहीं पता नहीं। रात को

  • 29: प्रेमचंद की कहानी "परीक्षा" Premchand Story "Pareeksha"

    12/11/2018 Duration: 10min

    इस विज्ञापन ने सारे मुल्क में तहलका मचा दिया। ऐसा ऊँचा पद और किसी प्रकार की क़ैद नहीं? केवल नसीब का खेल है। सैकड़ों आदमी अपना-अपना भाग्य परखने के लिए चल खड़े हुए। देवगढ़ में नये-नये और रंग-बिरंगे मनुष्य दिखायी देने लगे। प्रत्येक रेलगाड़ी से उम्मीदवारों का एक मेला-सा उतरता। कोई पंजाब से चला आता था, कोई मद्रास से, कोई नई फैशन का प्रेमी, कोई पुरानी सादगी पर मिटा हुआ। पंडितों और मौलवियों को भी अपने-अपने भाग्य की परीक्षा करने का अवसर मिला। बेचारे सनद के नाम रोया करते थे, यहाँ उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। रंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकार के अंगरखे और कंटोप देवगढ़ में अपनी सज-धज दिखाने लगे। लेकिन सबसे विशेष संख्या ग्रेजुएटों की थी, क्योंकि सनद की क़ैद न होने पर भी सनद से परदा तो ढका रहता है। सरदार सुजानसिंह ने इन महानुभावों के आदर-सत्कार का बड़ा अच्छा प्रबंध कर दिया था। लोग अपने-अपने कमरों में बैठे हुए रोजेदार मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हर एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर अ नौ बजे दिन तक सोया करते थे, आजकल वे बगीचे में टहलते हुए ऊषा का दर्शन करत

  • 28: प्रेमचंद की कहानी "उपदेश" Premchand Story "Updesh"

    09/11/2018 Duration: 46min

    एक बार प्रयाग में प्लेग का प्रकोप हुआ। शहर के रईस लोग निकल भागे। बेचारे ग़रीब चूहों की भाँति पटापट मरने लगे। शर्मा जी ने भी चलने की ठानी। लेकिन सोशल सर्विस लीग के वे मंत्री ठहरे। ऐसे अवसर पर निकल भागने में बदनामी का भय था। बहाना ढूँढ़ा। लीग के प्रायः सभी लोग कॉलेज में पढ़ते थे। उन्हें बुला कर इन शब्दों में अपना अभिप्राय प्रकट किया- मित्रवृन्द ! आप अपनी जाति के दीपक हैं। आप ही इस मरणोन्मुख जाति के आशास्थल हैं। आज हम पर विपत्ति की घटाएँ छायी हुई हैं। ऐसी अवस्था में हमारी आँखें आपकी ओर न उठें तो किसकी ओर उठेंगी। मित्र, इस जीवन में देशसेवा के अवसर बड़े सौभाग्य से मिला करते हैं। कौन जानता है कि परमात्मा ने तुम्हारी परीक्षा के लिए ही यह वज्रप्रहार किया हो। जनता को दिखा दो कि तुम वीरों का हृदय रखते हो, जो कितने ही संकट पड़ने पर भी विचलित नहीं होता। हाँ, दिखा दो कि वह वीरप्रसविनी पवित्र भूमि जिसने हरिश्चंद्र और भरत को उत्पन्न किया, आज भी शून्यगर्भा नहीं है। जिस जाति के युवकों में अपने पीड़ित भाइयों के प्रति ऐसी करुणा और यह अटल प्रेम है वह संसार में सदैव यश-कीर्ति की भागी रहेगी। आइए, हम कमर बाँध कर कर्म-क्षेत्र में उत

  • 27: प्रेमचंद की कहानी "नमक का दरोगा" Premchand Story "Namak Ka Daroga"

    06/11/2018 Duration: 20min

    पं. अलोपीदीन स्तम्भित हो गए। गाडीवानों में हलचल मच गई। पंडितजी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पडीं। बदलूसिंह आगे बढा, किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड सके। पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया कि यह अभी उद्दंड लडका है। माया-मोह के जाल में अभी नहीं पडा। अल्हड है, झिझकता है। बहुत दीनभाव से बोले, 'बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएँगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोडे ही हैं। वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा, 'हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते। अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन-ऐश्वर्य की कडी चोट लगी। किन्तु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले, 'लालाजी, एक हज़ार के नोट बाबू साहब की भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं। वंशीधर ने गरम होकर कहा, 'एक हज़ार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते। धर्म की इस बुध्दिहीन दृढता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुँझलाया। अब दो

  • 26: प्रेमचंद की कहानी "सज्जनता का दंड" Premchand Story "Sajjanata Ka Dand"

    03/11/2018 Duration: 16min

    रामा ने यह जवाब पहले ही सोच लिया। वह बोली, मैं तुमसे विवाद तो करती नहीं, मगर जरा अपने दिल में विचार करके देखो कि तुम्हारी इस सचाई का दूसरों पर क्या असर पड़ता है ? तुम तो अच्छा वेतन पाते हो। तुम अगर हाथ न बढ़ाओ तो तुम्हारा निर्वाह हो सकता है ? रूखी रोटियाँ मिल ही जायँगी, मगर ये दस-दस पाँच-पाँच रुपये के चपरासी, मुहर्रिर, दफ़्तरी बेचारे कैसे गुजर करें। उनके भी बाल-बच्चे हैं। उनके भी कुटुम्ब-परिवार हैं। शादी-गमी, तिथि-त्योहार यह सब उनके पास लगे हुए हैं। भलमनसी का भेष बनाये काम नहीं चलता। बताओ उनका गुजर कैसे हो ? अभी रामदीन चपरासी की घरवाली आयी थी। रोते-रोते आँचल भीगता था। लड़की सयानी हो गयी है। अब उसका ब्याह करना पड़ेगा। ब्राह्मण की जाति हजारों का खर्च। बताओ उसके आँसू किसके सिर पड़ेंगे ? ये सब बातें सच थीं। इनसे सरदार साहब को इनकार नहीं हो सकता था। उन्होंने स्वयं इस विषय में बहुत कुछ विचार किया था। यही कारण था कि वह अपने मातहतों के साथ बड़ी नरमी का व्यवहार करते थे। लेकिन सरलता और शालीनता का आत्मिक गौरव चाहे जो हो, उनका आर्थिक मोल बहुत कम है। वे बोले, तुम्हारी बातें सब यथार्थ हैं, किंतु मैं विवश हूँ। अपने नियमों

  • 25: प्रेमचंद की कहानी "सौत" Premchand Story "Saut"

    31/10/2018 Duration: 20min

    रामु दिल में इतना तो समझता था कि यह गृहस्थी रजिया की जोड़ी हुई हैं, चाहे उसके रूप में उसके लोचन-विलास के लिए आकर्षण न हो। सम्भव था, कुछ देर के बाद वह जाकर रजिया को मना लेता, पर दासी भी कूटनीति में कुशल थी। उसने गम्र लोहे पर चोटें जमाना शूरू कीं। बोली—आज देवी की किस बात पर बिगड़ रही थी? रामु ने उदास मन से कहा—तेरी चुंदरी के पीछे रजिया महाभारत मचाये हुए है। अब कहती है, अलग रहूंगी। मैंने कह दिया, तेरी जरे इच्छा हो कर। दसिया ने ऑखें मटकाकर कहा—यह सब नखरे है कि आकर हाथ-पांव जोड़े, मनावन करें, और कुछ नहीं। तुम चुपचाप बैठे रहो। दो-चार दिन में आप ही गरमी उतर जायेगी। तुम कुछ बोलना नहीं, उसका मिज़ाज और आसमान पर चढ़ जायगा। रामू ने गम्भीर भाव से कहा—दासी, तुम जानती हो, वह कितनी घमण्डिन है। वह मुंह से जो बात कहती है, उसे करके छोड़ती है। रजिया को भी रामू से ऐसी कृतध्नता की आशा न थी। वह जब पहले की-सी सुन्दर नहीं, इसलिए रामू को अब उससे प्रेम नहीं है। पुरुष चरित्र में यह कोई असाधारण बात न थी, लेकिन रामू उससे अलग रहेगा, इसका उसे विश्वास ना आता था। यह घर उसी ने पैसा-पैसा जोड़ेकर बनवाया। गृहस्थी भी उसी की जोड़ी हुई है। अनाज

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